आज हम ध्यान के बारे में जानेंगे कि ध्यान क्या है और उसके कितने प्रकार है | ध्यान भारतीय संस्कृति की एक अद्भुत खोज है | हमारे शास्त्रों में, पुराणों में और ऋषि-मुनियों ने ध्यान की बहुत भारी महिमा गाई है | जो मानव मात्र के लिए एक वरदान रूप साबित हुआ है | जो भजन- कीर्तन करते हैं, भक्ति करते हैं उनके लिए तो यह एक उत्तम साधन है | ध्यान के बारे में तो हमारे शास्त्रों में, पुराणों में उनकी अलग-अलग सी व्याख्या बताई गई है तथा हमारे ऋषि-मुनियों , साधु-संतों और महापुरुषों ने भी अपनी-अपनी सोच से ध्यान की व्याख्या की है | लेकिन यहां मैंने अपनी सोच विचार से ध्यान की परिभाषा बताई है | जो सहज और सरल शब्दों में उनका वर्णन किया है | जिससे आप अच्छी तरह से समझ सकोगे और उनका अभ्यास भी कर पाओगे | यदि हम आध्यात्मिक जगत की दृष्टिकोण से देखेंगे तो सर्वाधिक शब्द का जो प्रयोग होता है वह ध्यान शब्द है | ये बिल्कुल सही बात है | आध्यात्मिक मार्ग में तो ध्यान का मार्ग सर्वोपरी बताया है | हम लोग और आप लोगों ने भी कई बार ध्यान का शब्द सुना होगा और जाना भी होगा | संसार में तो ध्यान का शब्द हम कॉमन मानते हैं जैसे कि अरे, भाई ! गाड़ी ध्यान से चलाना, ध्यान से पढ़ना, ध्यान से काम करना विगेरे- विगेरे सेंटेंस के साथ ध्यान शब्द जुड़ जाता है | यदि हम इस ध्यान शब्दों को साधु-संतों के कथा- सत्संग में उनके मुंह से सुनते हैं तो उसकी वैल्यू कई गुना बढ़ जाती है | तो मानना पड़ेगा कि आध्यात्मिक जगत में ध्यान का विशेष महत्व है |
ध्यान एक ऐसा उत्तम साधन है जो साधक को परमात्मा में एकाकार करा देती है | जो मन को शांत कर दें यानी कि मन को बुद्धि में और बुद्धि को उस परब्रह्म में स्थिर करा दे उसे हम ध्यान करते हैं | ध्यान एक ऐसी प्रक्रिया है जो साधक के जीवन में नया उत्साह, नई ताजगी, नया उमंग और नया जोश भर देती है | जो संसार में अशांत होकर, खिन्नता से और दु:ख-निराशा से जीते हैं उनके लिए ताे ध्यान एक अमाेध शस्त्र है | उनकी सारी विध्न बाधाओं को चीर देती है | ध्यान यानी कि हमारी सारी बहिर्मुख इंद्रियों को अंतर्मुख करके आत्मतत्व में स्थिर करने की क्रिया को ध्यान कहते हैं | हमारे शास्त्रों के अनुसार अष्टांग योग में ध्यान का सातवां स्थान बताया गया है | अष्टांग योग यानी कि यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि इसे हम अष्टांग योग कहते हैं | प्रत्येक मनुष्य को अपने चंचल मन को वश में करने के लिए ध्यान का अभ्यास करना चाहिए | क्योंकि चंचल मन को वश में करना यानी लोहे का चना चबाना बराबर होता है | जैसे गाय के सींग पर राई का दाना टिक नहीं सकता, ऐसे ही हमारा मन उस आत्म-परमात्म तत्व में नहीं टिकेगा और ऊपर से यह कलयुग में तो बहुत मुश्किल होता जाता है | ( मन के बारे में आपको मैं पूरा विस्तृत से बताऊंगा जाे मेरे आने वाले ब्लॉग में आयेगा ) | यह फास्ट लाइफ में, भागदौड़ में तो हमारा मन और इंद्रियां इतनी बहिर्मुख हो गई है कि हम रात को ठीक से सो नहीं पाते, बात-बात में गुस्सा आ जाता है और अशांत भाव का महसूस करते हैं जाे वह मानसिक अशांति का रोग घर कर जाती है | यह सारी समस्या धीरे धीरे बाह्य जगत में बढ़ती जा रही है | फिर भी हम थोड़ा ध्यान का अभ्यास करते हैं तो वह हमारे लिए फायदेमंद रहता है | क्योंकि आध्यात्मिक मार्ग में तो ध्यान साधक के लिए उत्तम तो है ही, पर हम संसार में थोड़ा बहुत समय निकालकर ध्यान का अभ्यास करते हैं तो सफलता के सोपान प्राप्त करने में देर नहीं लगेगी और शांति का अनुभव भी हाेने लगेगा |
जो साधक या भक्त परमात्मा प्राप्ति करना चाहते हैं तो उनके लिए ध्यान एक श्रेष्ठ साधन है | क्योंकि हमारे अशांत और चंचल मन-चित को स्थिर करने की एक उत्तम औषधि है | यदि हम 10-15 मिनट भी ध्यान में बैठते हैं तो हमारे कहीं पापों का नाश हो जाता है | उनके साथ हमें कहीं गुना फल की प्राप्ति भी होती है | इसलिए शास्त्रों में भी कहा है,
नास्ति ध्यानं समं तीर्थम नास्ति ध्यानं समं यज्ञं |
नास्ति ध्यानं समं दानम तस्मात् ध्यानं समाचरेत् ||
अर्थात जो हम तीर्थ यात्रा करते हैं, हवन-होम-यज्ञ आदि करवाते हैं और दान-पुण्य करते हैं वह मात्र आत्म तत्व में एकाग्रचित से ध्यान लगाने से ही सारे फलों की प्राप्ति हो जाती है | तो मानना पड़ेगा कि ध्यान ईश्वर प्राप्ति और परमात्मा प्राप्ति के लिए एक सहज और सुगम मार्ग है | इसलिए हमारे अाध्य जगद्गुरु शंकराचार्य ने भी बहुत अच्छा कहा है कि, हमारे मन किसी भी प्रकार का संकल्प, विकल्प या विचार स्फुरित ना हो उसे ध्यान कहां है | यानी कि विचार रहित शून्य मन:अवस्था की स्थिति ही सर्वश्रेष्ठ ध्यान है
यानी कि चित्त की स्फुर्णा को शांत करने की प्रक्रिया को ध्यान कहते हैं | चित की स्फुणा यानी के संकल्प-विकल्प या विचार का उद्गम स्थान | उसी स्थान की गहराई में जाकर शांत या विचार शून्य हो जाना ही ध्यान करते हैं | परंतु ऐसी अवस्था को प्राप्त करना इतना आसान भी नहीं है | क्योंकि हम लोग सोचते होंगे कि आंखें बंद करके और आसन पर बैठकर ध्यान लगा देंगे और मन को शांत कर देंगे, पर ऐसा नहीं होता | जब आप लोग ध्यान में जैसे ही बैठोगे तब तुम्हारा मन 1 सेकंड भी वहां नहीं टिक पाएगा | क्योंकि तुम्हारा शरीर वहां होगा पर मन और चित्त तो ना जाने कहीं-कहीं जगहों पर भागता रहता होगा | जैसे कि किसी का मन यह सोचेगा कि वह जल्द से जल्द सारे काम निपटा कर टाइम टू टाइम ऑफिस पहुंच जाऊंगा, कोई सोचता होगा कि आज तो मैं बढ़िया धंधा करूंगा, कोई सोचता हो गया कि एक तोला अच्छा सा बढ़िया सोना खरीद लूंगा, तो कोई अच्छा मकान बनाने का या खरीदने का सोचेगा तो, कोई लड़की के बारे में, तो कोई शादी के बारे में, तो कोई अपने खेत के बारे में विगेरे-विगेरे का संकल्प-विकल्प बनाकर सोचते ही रहते हैं, पर ध्यान की कोई क्रिया नहीं होती | बस ध्यान का समय समाप्त हुआ कि फिर वही रोजिंदा कार्य में लग जाते हैं और हम समझते हैं कि आज हमने बढ़िया ध्यान किया था | खाक तुमने बढ़िया ध्यान किया ! ध्यान में सतत संसार की बातें, नौकरी धंधा की बातें करते करते समय पूरा कर देते हो | जिससे आपको कोई फायदा नहीं होगा | आप फिर वहीं के वहीं रह जाते हो |
यह बिल्कुल सच्ची बात है | क्योंकि यह मेरा खुद का अनुभव है | ऐसा नहीं है कि संसारीयो का ही मन इधर-उधर चला जाता है, पर जो शुरुआत में योग साधना या भक्ति के मार्ग में जाते हैं उनका मन भी कभी-कभी बार विचलित हो जाता है | कहने का तात्पर्य यह है कि ध्यान को पूर्ण तरह से जानने के लिए हमें कोई सच्चे संत या सद्गुरु की शरण लेनी चाहिए | वहां पूरा आध्यात्मिक और भगवतमय् वातावरण होता है | अधिकतर संतों के आश्रम नदी के तट पर होता है | इसलिए उस आश्रम के आसपास की ऊर्जा संसार के वातावरण से कहीं गुना बढ़ जाती है | वहां हर रोज कथा-सत्संग और भजन-कीर्तन होता रहता है | जिससे हमें ध्यान लगाना नहीं पड़ता परंतु अपने आप ही ध्यान लग जाता है | मन को जबरदस्ती नहीं करनी पड़ती | मन अपने आप ही शांत हो जाता है | क्योंकि यह वातावरण का प्रभाव होता है | जो हमारे स्थूल शरीर के साथ सूक्ष्म शरीर, मन और बुद्धि पर भी उनकी गहरी असर पड़ती है | ऐसे शुद्ध वातावरण का हमें लाभ उठाना चाहिए | ऐसी जगह पर सप्ताह में एक बार तो अवश्य जाना चाहिए | यदि सप्ताह में नहीं जा सके तो हर 15 दिनों में एक बार तो जाना चाहिए | यदि 15 दिनों में जा नहीं सके तो महीने में तो एक बार अवश्य जाना ही चाहिए | जिससे हमारा मन संसार की आशक्तियों से धीरे-धीरे उपराम होता जाएगा | संसार की आशक्तियां छूटेगी तो हमारा मन धीरे-धीरे शांत होने लगेगा और शांत होते ही हमें उस गहराई ध्यान का अनुभव कर शकेंगे | हमारा संकल्प-विकल्प का स्फूर्णा भी शांत हो जाएगा |
यदि एक बार भी उस गहराई ध्यान में चले गए तो फिर आप उस आत्मतत्व का, परब्रह्म परमात्मा का अनुभव करने में देर नहीं लगेगी | यह तो ध्यान का बहुत भारी गुण है | जो हमें आत्म तत्व में परमात्मा तत्व में एकाकार करा देती है | इसलिए हमें जितना हो सके उतना ध्यान के अभ्यास में रूचि बढ़ाना चाहिए | खास उन लोगों के लिए जो संसार में रहकर, कर्म करके ईश्वर प्राप्ति करना चाहते हैं वह लोग थोड़ा भी समय निकालकर ध्यान में बैठने का प्रयास करना चाहिए | क्योंकि आज की हमारी जीवनशैली बहुत फास्ट बनती जा रही है | इस लाइफ में हम लोग सतत व्यस्त ही रहते हैं | वह चाहे धंधा में हो या नौकरी में या तो शिक्षण क्षेत्र में हमारा शिडूयल सतत व्यस्त ही होता जाता है | जिससे हम थोड़ी सी भी फुर्सत नहीं निकाल पाते | यह बिल्कुल सही बात है कि हमें समय का अभाव होने का महसूस हाेता है | यदि हमारी जीवनशैली को आध्यात्मिक में, ध्यान में नहीं जोड़ा तो हताशा, निराशा, बेचैनी, भय और मानसिक अशांति की खाई में गिर जाएंगे | जिससे वहां से बाहर निकलना बहुत कठिन हो जाएगा | फिर हमारा पूरा जीवन उस खाई में समाप्त हो जाता है और अंत में कुछ भी नहीं आता | इसलिए हमारे संतो ऋषि मुनियों ने वही भी रास्ता खोज डाला था | जिससे हम कहीं पर भी और आराम से ध्यान का अभ्यास कर शकेंगे | जो रास्ता खोजा है हम उसे ध्यान के प्रकार करते हैं | जो मेरे आने वाले ब्लॉग में उनका पूरा विस्तृत से वर्णन किया होगा | हमें ध्यान में जो भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है वह सारे उपाय ध्यान के प्रकार में बताया जाएगा | …………जय सीयाराम……….. जय सीयाराम………..हरे राम…….! हरे राम……………..|
हरे राम……हरे राम……हरे राम…….
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