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भक्ति क्या है और भक्ति कैसे बढ़ाएं

आध्यात्मिक मार्ग में भक्ति काे सर्व प्रथम सोपान माना गया है | क्योंकि परमात्मा प्राप्ति का उदगम स्थान ही भक्ति है | हमारे ऋषि-मुनियों, संतो, महापुरुषों ने भी भक्ति की बहुत भारी महिमा बताई है | इसलिए हम जानेंगे कि भक्ति क्या है और उसे कैसे बढ़ाएं ? ऐसे तो भक्ति की व्याख्या कई सारे संतों ने अपनी-अपनी सोच से उसका वर्णन किया है | लेकिन यहां मैं अपने विचार से बताता हूं कि भक्ति यानी कि ” हमारे द्वारा जो आहार व्यवहार से, शुद्ध आचरण से, परमार्थ के काज के लिए जो कोई कर्म करते हैं उसे हम भक्ति करते हैं | यदि हम दूसरे शब्दों में भक्ति का अर्थ कहे तो पूजा पाठ करना, भजन-कीर्तन करना, उपासना करना जप-तप-ध्यान इत्यादि और सत्कर्म करना उसे भी भक्ति करते हैं | यदि हम भक्ति की बात करें तो भक्ति शब्द स्त्रीलिंग है | इसलिए आध्यात्मिक दृष्टि से देखने जाए तो हम उसे भक्ति देवी कहते हैं और उसका भागवत पुराण में भी उसकी कथा का विस्तार से वर्णन बताया गया है | ऐसे देखने जाए तो भक्ति स्वयं आद्यशक्ति का ही एक रूप है | अब हम जानेंगे की भक्ति कैसे बढ़ाएं ? पर उसके पहले हम जानेंगे भक्ति देवी की कथा | जो भागवत पुराण में बताई गई है | पुराण में भक्ति देवी की कथा लंबी है | लेकिन यहां मैं टुँक में उसका वर्णन करूंगा | जिससे आप थोड़ा बहुत समझ पाओगे और जानोगे की भक्ति कैसे बढ़ाए ? भक्ति कैसे करें ? और क्या-क्या करें ? जिससे हमारी भक्ति पुस्ट हो |

एक समय की बात है | जब नारद मुनि सर्वोत्तम लोग समझ कर पृथ्वी पर आए और वह परिभ्रमण करने लगे | परंतु उनको कहीं पर भी शांति नहीं मिली | क्योंकि उस समय पर कलयुग ने समस्त पृथ्वी पर अपना प्रभाव डाल दिया था | यानी के अशांत और दु:खों से भर दिया था | इसलिए यहां सत्य, तप, पवित्रता, दया, दान इत्यादि का अभाव हो गया था | सभी घरों में स्त्रीयों का राज था | पति-पत्नी के बीच कलस- कंकाल होता था | इस कलिकाल में सभी देशवासियों बाजारों में अन्न बेचते थे | ब्राह्मणों पैसा-रुपया लेकर वेद पढ़ाते थे तथा स्त्रीयों वेश्यावृत्ति का धंधा करके जीवन निर्वाह करती थी | इस तरह नारद कलयुग के दोषों को देखते हुए और पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए यमुना जी के तट पर पहुंचे | तब वहां उन्होंने एक बड़ा आश्चर्य देखा कि वहां एक युवान स्त्री खिन्न और अशांत मन से बैठी थी | उसके पास में दो वृद्ध पुरुषाे अचेत अवस्था में पड़े हुए थे | वह युवती उनकी सेवा करती, कभी सचेत करने का प्रयास करती, तो कभी उनके आगे रोने लगती थी | ये सारा दृश्य नारदजी़ दूर से सब देखते हुए कुतूहलवश से उनके पास गए | तब वह युवती मुझे देखकर खड़ी हो गई और अत्यंत व्याकुल होकर मुझे कहने लगी | युवती ने कहा : हे !महात्माजी ! पल भर के लिए थोड़ी देर के लिए ठहर जाओ और मेरी चिंता का निवारण करो | नारदजी बोले : हे ! देवी आप कौन हो ? और यह दोनों वृद्ध पुरुषाे आपके क्या लगते है ? तथा आपके पास है कमलनयन देवियां कौन है ? तुम अपने दुखों का कारण विस्तार से बताओ | तब युवती ने कहा : मेरा नाम भक्ति है | ये ज्ञान-वैराग्य नाम के दोनों मेरे पुत्रों है | कलिकाले यह वृद्ध होकर मूर्छित पड़े हैं | ये देवीयाँ यमुना, गंगाजी विगेरे नदियाँ है | वह सब हमारी सेवार्थे यहां आई हुई है | इस तरह से साक्षात ये पवित्र देवियों की सेवा मिलने पर भी मुझे सुख-शांति नहीं मिली | हे ! मुनिवर ! अब आप ध्यान से मेरा वृत्तांत सुनो और मुझे शांति देने का प्रयास कीजिए |

द्रविड़ देश में मेरा जन्म हुआ, कर्नाटक में पाली पोषी और महाराष्ट्र में मैं सम्मानित हुई | परंतु गुजरात में मुझे पूरा वृद्धावस्था ने घेर लिया | वहाँ घोर कलयुग के प्रभाव से पाखंडियों ने मुझे अंग-भंग कर दिया | दीधँ समय काल तक ऐसी अवस्था रहने के कारण मैं अपने दोनों पुत्रों सहित दुर्बल और निस्तेज हो गई और फिर मैं वहां से वृंदावन पहुंची | तब यहाँ मैं दोबारा परम सुंदरी नवयुवती हो गई | परंतु आपके सामने यह पडे हुए मेरे दोनों पुत्रों वृद्ध होकर मूर्छित पड़े हैं | बस इस दु:ख से ही मैं दु:खी हूं |माँ होने के बावजूद भी मैं युवान हूँ और यह दोनों मेरे पुत्र होते हुए भी वृद्ध क्यों है ? ऐसे देखने जाए तो माता वृद्ध होनी चाहिए और पुत्रों युवान होने चाहिए | लेकिन यहां तो मेरे साथ पूरा उल्टा हो गया है | इसी कारण मैं आश्चर्यचकित चित से अपनी स्थिति पर शौक कर रही हूं | आप परम बुद्धिमान और योगनिध हाे | तो इसका ऐसा क्यु और काैन सा कारण है ? कृपया आप मुझ पर दया करके इसका रहस्य समझाइए | तब नारद जी ने कहा : हे ! देवी ! तुम्हारे ये दाे पुत्रों का वृद्ध होने का कारण ये घोर कलयुग का प्रभाव है | बस इतना कह कर उनका उस दु:ख का निवारण करने के लिए घूमते-घूमते सनकादि ऋषियों के पास गए | उनके पास जाकर भक्ति देवी का सब दु:खों का वृतांत बताया | वह वृतांत सुनकर सनकादिक ऋषि ने नारद जी को उसका उपाय बताया और कहां : हे ! नारदजी ! श्रीमद् भागवत का पारायण करो और उनको सुनाओ | तब नारदजी ने कहा : हे ! मुनिवर ! मैंने वेद-वेदांत, उपनिषदों का ज्ञान और श्रीमदभगवत गीता का ज्ञान भी सुनाया | फिर भी उनके दु:ख का निवारण नहीं हुआ | तो यह श्रीमद् भागवत कथा से कैसे होगा ? तब सनकादिक ऋषि बोले : हे ! नारद ! सब उपनिषदों और शास्त्रों का पूरा सार ही श्रीमद् भागवत कथा है | जहां भी श्रीमद् भागवत कथा होगी वहां भक्ति अपने आप पहुंच जाएगी और उनके कानों में कथा का श्रवण होते ही वह तीनों तरुण अवस्था को प्राप्त होगे |

ऐसा कहकर नारदजी के साथ सनकादिक विगेरे सब श्रीमद् भागवत कथा का अमृत रसपान करने के लिए गंगा नदी के तट पर चले गए | अनेक ऋषि-मुनियों और देवी-देवताओं भी कथा सुनने के लिए आ पहुंचे | उस समय पर सभी जगह से जय जय कार और शंखनाद होने लगे | अबील, गुलाल, चंदन और पुष्पों की वृष्टि होने लगी | फिर सनकादिक ऋषि-मुनियों ने कथा का प्रारंभ किया | तब उसी सभा में एक बहुत बड़ा आश्चर्य हुआ | वहां तरुण अवस्था को प्राप्त होनेवाले खुद के दाे पुत्राे सहित भक्ति देवी भगवान नाम का बारंबार उच्चारण करती हुई अचानक प्रकट हुई | वहां समस्त सभा जन स्तब्ध हो गए और तर्क-वितर्क करने लगे कि यह भक्ति देवी यहां कैसे आई ? और क्यों प्रगट हुई ? तब सनकादिक बाेले, यह भक्ति देवी है | वह अभी-अभी हमारे कथा के अर्थ में से प्रगट हुई है | तब भक्ति देवी विनम्र होकर बोली, मैं कलयुग के प्रभाव से निस्तेज हो गई थी और मेरे दो पुत्रों ज्ञान और वैराग्य वृद्ध हो गए थे | लेकिन आपने कथामृत का सिंचन करके मुझे पुनः पुस्ट कर दिया है और मेरे दो पुत्रों भी तरुण अवस्था को प्राप्त हुए | अब आप ही बताओ कि इस कलयुग में मैं कहां रहूँ | तब सनकादिक बोले : हे ! भक्ति देवी ! आप जहां हरिकथा होती है, भजन-कीर्तन होता है और भगवत स्मरण करते हो ऐसे हरि भक्तों के हृदय में , संतों के हृदय में ही आप निवास करो | इस तरह से सनकादिक ऋषि-मुनियों की आज्ञा मिलते ही भक्ति तुरंत भगवत प्रिय भक्तों के हृदय में जाकर विराजमान हो गई | इस तरह भागवत कथा द्वारा नारदजी ने भक्ति को पुनः पुस्ट किया तथा ज्ञान-वैराग्य को भी युवा अवस्था को प्राप्त करवाया | इस कथा का सार यही है कि यदि आपको भक्ति बढ़ाना हो तो कथा सत्संग में तो जाना ही पड़ेगा | हरि भजन कीर्तन तो करना ही पड़ेगा | इसके अलावा और कोई दूसरा मार्ग नहीं है जिससे हमारे भक्ति बढ़ शके |

हरे राम……हरे राम……हरे राम…….
ॐ……..ॐ……..ॐ……..

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