कोई भी संत हो या कोई भी भक्त हो वह इस संसार रूपी सागर से ही आए हैं | हम लोग जहां रहते हैं उसे हम सृष्टि कहते हैं और उसी सृष्टि को आध्यात्मिक शब्दों में कहें तो संसार कहते हैं | यह जो संसार है वह परमात्मा की महामाया से ढका हुआ है | उसमें माया रूपी आवरण का पर्दा छाया हुआ है | जिससे हम अपने इन आंखों से नहीं देख पाते | यह संसार रूपी सागर पूरे विश्व में फैला हुआ है | संसार की माया हमारे रिश्ते-नाते से ही शुरु होती है, यानी कि माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी, बेटा बेटी के सारे रिश्ते- नाते हमें संसार की जंजीर से बांध देती है | जिससे इस जंजीर से छूटना बहुत कठिन हो जाता है | इसलिए तो बड़े-बड़े संतों, भक्तों भी कहते हैं संसार की मोह माया से बाहर निकलना कोई आसान काम नहीं है | क्योंकि ऐसे तो कितने राजा-महाराजा, पहलवान इस पृथ्वी पर आ आ के चले गए पर कोई महामाया से पार न हो शका और यह बिल्कुल सच्ची बात है कि भक्ति करना, ईश्वर प्राप्ति करना कोई बच्चों का खेल नहीं है | इसमें तो भल-भला और अच्छे-अच्छे का तेल भी निकल जाता है | फिर भी हमारे संतो ऋषि मुनियों ने गहराई में जाकर उसका आसान मार्ग भी खोज डाला है | जिससे हम उसी पथ का सहारा लेकर भवसागर से तैर शकते हैं | ऐसे तो हमारे भारत देश में कहीं भक्तों और संतों हो गए हैं | जिन्होंने भक्ति की अग्नि-परीक्षा पास करके उस परम तत्व परब्रह्म परमात्मा का अनुभव करा था | जैसे कि नरसिंह मेहता, मीराबाई, संत नामदेव, संत तुकाराम, तुलसीदास, भक्त गोरा कुंभार विगेरे-विगेरे ऐसे भक्त हो गए जिन्होंने ऐसी खतरनाक कसाेटी से गुजरना पड़ा था और संसार में ईश्वर का परमात्मा का प्रत्यक्ष प्रमाण दिया था |
अब हम देखेंगे की भक्ति में ईश्वर प्राप्ति में क्यों कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ? क्योंकि इस संसार की मोह माया ही हमको उसकी ओर जाने से रोकती है और भी उसमें यह तीन तो मुख्य भाग भजते हैं | जो सबसे बड़ी बाधा रुप होती है | हमारी भक्ति में जो हमारी भक्ति के शत्रु होते हैं | जिसे हम काम, क्रोध और लोभ कहते हैं | यह तीन चीजें हमें ईश्वर की ओर नहीं जाने देती है | इसीलिए हम तीनों चीजों के बारे में थोड़ा कुछ जानने का प्रयास करते हैं | जिससे हमें पता चले कि यह तीन शत्रु है क्या और कैसे बाधारूप बनते हैं ? पहले हम काम के बारे में जानेंगे | काम :- काम यानी कि हमारी इच्छा वासना से जो उत्पन्न होता है उसे हम काम कहते हैं | हमारा ये पहला शत्रु है जो भक्ति में परमात्मा प्राप्ति में विध्न बनता है | ये जो विकार हमारे मन से पैदा होते हैं | विकार का अर्थ सेक्स से संबंधित विचार | जैसे कि कोई सुंदर स्त्री हो या खूबसूरत लड़की हो उनको देखने से जो कामुक विचार होते हैं उससे विकार कहते हैं | ये काम-विकारने न जाने हमें कित-कितनी योनियों में भटकाया होगा और अभी भी हम उसी की ओर खींचते ही जाते हैं | उसके आगे हम लाचार और विवश हो जाते हैं | हम काम विकार के आगे शरणागति ले लेते हैं | यही तो हमारे मन की सबसे बड़ी कमजोरी है | जो हमें ईश्वर प्राप्ति की ओर जाने नहीं देती | जिससे हम भक्ति का एक बड़ा शत्रु कहते हैं |
काम विकार के बारे में मुझे युवा पेढ़ी को पूरा विस्तृत से बताना चाहता हूं और उनको एक अच्छा संदेश भी देना चाहता हूं | जो मेरे आने वाले ब्लॉग में उनका मैं पूरा वर्णन करूंगा | अब हम क्रोध के बारे में जानेंगे | क्रोध :- क्रोध यानी कि हमारी इच्छा पूर्ण नहीं होती या हमारी इच्छा से जो विपरीत होता है तब गुस्से का भाव उत्पन्न होता है उसे हम क्रोध कहते हैं | हमारा यह दूसरा शत्रु है | जो भक्ति और परमात्मा प्राप्ति में विध्न बनता है | यदि हम ईश्वर प्राप्ति करना चाहते हैं तो जितना हो शके उतना हमें क्रोध या गुस्सा पर काबू रखना होगा | जब कोई मनुष्य अपने क्रोध की सीमा हद से पार कर जाता है तब उसे हम क्रोधाग्नि कहते हैं | इसी क्रोधाग्नि से हमारी साधना या तपश्चर्या एक क्षण में नष्ट हो जाती है | जब कोई भी मनुष्य क्रोध करता है तब थोड़ा सा सूक्ष्म अंहभाव पैदा होता है | जो हमें परमात्मा प्राप्ति या भक्ति से दूर कर देता है | इसलिए हमें जितना हो सके उतना इच्छाओं का त्याग करना चाहिए | जिससे हमारा मन ईश्वर में भक्ति में लग जाए | आपको मैं एक महाभारत का उदाहरण बताता हूं कि भगवान कैसे क्रोध और अंह से दूर रहते हैं | महाभारत में आप लोगों ने दुर्योधन का नाम तो सुना ही होगा | दुर्योधन के पास राजपाट से लेकर सब कुछ उनके पास था फिर भी भगवान श्रीकृष्ण उनके साथ नहीं थे | एक बार भगवान श्री कृष्ण महाभारत युद्ध होने से पूर्व शांतिदूत बनकर दुर्योधन के घर गए थे | तब दुर्योधन ने भगवान के लिए छप्पन-भोग का प्रबंध किया था | फिर भी वह सारे भाेगों को ठुकरा कर एक दासी पुत्र विदुर के घर भाजी खाने चले गए | क्योंकि विदूर शांतिप्रिय, बुद्धिमान और भगवान के परम भक्त थे | जब दुर्योधन का स्वभाव क्रोधित और अंह से भरा हुआ था | उनको बात-बात में गुस्सा आ जाता था |
इसलिए भगवान ने उनका छप्पन-भोग का आमंत्रण ठुकराया था | ताे हमे मानना पड़ेगा कि जहां क्रोध होता है वहां भगवान का अभाव रहता है | इसलिए सदैव पेमभाव और शांति का भाव रखना चाहिए | जिससे हमारा मन शीघ्र ईश्वर की ओर लग जाएगा | अब हम लोभ के बारे में जानेंगे, लाेभ :- लाेभ यानी कि हमारे पास जितना कुछ भी है या उससे अधिक प्राप्त करना ही लोग कहते हैं | हमारा यह तीसरा शत्रु है जो भगवत्प्राप्ति में विध्न बनता है | लोभ की लालसा ही हमें अपने आप में, परमात्मा प्राप्ति में रुकावट लाती है | जैसे कि मैं इतना धन इकट्ठा करलु, ढेर सारा रुपया बनालु, आलीशान मकान बनादु विगेरे-विगेरे का लाेभ ही हमारा समय व्यतीत कर देता है और अंत में कुछ आता नही है | फिर से लख-चाेरासी का चक्कर चालू हो जाता है | इसलिए जितनी जरूरत है उनसे ही गुजारा करेंगे तो हमारा समय भी बच जाएगा और हने कथा-सत्संग, भक्ति में समय मिल पाएगा | जिससे हम अपना यह मनुष्य जन्म सफल कर पाएंगे | इसलिए भगवान श्री कृष्णा ने श्रीमद भगवद् गीता में बहुत अच्छा बताया है जैसे कि,
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन: |
काम: क्रोधस्तथा लाेभस्तस्मादतेत्त्रं त्यजेत ||
अर्थ :- काम, क्रोध और लोभ ये तीनों नरक के द्वार है | आत्मा का नाश करने वाला और उसको अधोगति की ओर ले जाने वाला है | अतः इसे त्याग कर देना चाहिए |
हरे राम……हरे राम……हरे राम…….
ॐ……..ॐ……..ॐ……..